Saturday, August 8

The z axis and irrational happiness..

आज शुक्रवार की शाम है.....ऑफिस में विशेष काम था नहीं, तो हमारे दिमाग में भांति भांति के विचार आने लगे; जब से नौकरी करना शुरू किये हैं, शुक्रवार नामक इस दिवस ने ज़िन्दगी में एक अलग ही स्थान प्राप्त कर लिया है; शुक्रवार की शाम आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है, आगे दो दिन की छुट्टी है....ऐसे लगता है मानो बस इन्ही दो दिन का इंतज़ार था..अब हम विश्व विजय कर लेंगे....वो सारे काम, जिनका चिटठा लिए हम हफ्तों से घूम रहे हैं; इसी सप्ताहंत में सभी का निर्वाह करके, आनंद और कर्त्तव्य परायणता की चरम सीमा को छू लेंगे...:) अगर पिछले दो सालों पर नज़र डालें तो विरले ही ऐसे सप्ताहंत रहे हैं जहाँ हमने खुद से किये गए कुछ वायेदों को निभाया है; अमूमन शनिवार और रविवार घर पे ही आराम फरमाते हुए, बचे हुए कुछ कामों को थोडा सा अंजाम के और करीब पहुंचाते हुए निकल जाते हैं; किन्तु शुक्रवार की शाम को जो मन मयूर में माहौल होता है..उसमे कोई विशेष अंतर नहीं आया है ..:)...आज ऐसे ही मन में विचार आ रहा था...कि क्या शुक्रवार सचमुच इतना मत्वपूर्ण होता है??? ....सांख्यिकी को अगर ध्यान में रखा जाए तो ९०% लोग ऐसे होंगे जो सप्ताह में इतना काम करते हैं, जिसे की सामान्य ऊर्जा स्तर से इति की ओर पहुँचाया जा सकता है ..और जिसके बाद २ दिन के अविघ्नकारी अवकाश की आवश्यकता नहीं होती....किन्तु हमारा मन मस्तिष्क इस तरह से यंत्रस्थ किया जा चुका है कि अगर ऊपर से निर्देश आ गए की इस शनिवार/ रविवार आपको ऑफिस आना पड़ सकता है, तो हम मानसिक रूप से ही इतने थक जाते हैं कि काम क्या ही हो पाता है....

Ok, as I write this post i realise, that I have lost all my grip over Hindi..:(...framing one sentence is taking more than 2 minutes, which by all standards is too too much, needless to mention the help from some random site and kind souls like N. I remember, there use to be a time when I was more of a Hindi person. Writing in our mother tongue came all very naturally. In addition to scoring highest marks in Hindi literature and grammar ..I use to be an active member of Hindi debate and writing club..:( .English was something which needed efforts, I still remember my first essay in English in class IV....I was disqualified from participating in a district level essay competetion as I committed some gross mistakes in my writing on "The Gulf War"-1991 (mistakes are too embarrassing to be mentioned here..:))....the remainder of this post has to be in Hindi...no matter how much time it takes.... "Shukra hai Shukravaar hai" can take a back seat...I guess I am more tempted to go down the "Hindi" memory lane :)

हमारी पीढी के अधिकाँश उत्तर भारतीय बच्चों की तरह हमारे घर में भी हिंदी का ही वर्चस्व था; हमारी मातृभाषा गढ़वाली है, और अक्सर माँ एवं पिताजी गढ़वाली में वार्तालाप करते पाए जाते हैं; किन्तु रोजमर्रह कि ज़िन्दगी में, और आसपास के वातावरण में भी हिंदी ही सबसे प्राभाव पूर्ण भाषा थी; हमारी माताजी संस्कृत/ हिंदी कि अध्यापिका हैं, दोनों ही भाषाओं में निपुण हैं, एवं पिताजी अलाहबाद विश्वविद्यालय से स्नातक तो हिंदी या यूँ कहिये काफी शुद्ध हिंदी में घर में वार्तालाप हो जाया करता था... मुझे याद आता है जब मेरे भाई बहिन का कक्षा १० का परिणाम आया...और वो अपेक्षा के अनुसार नहीं था; हमेशा की भाँती दोनों समझदार बच्चे सो गए...:) सोये रहेंगे तो पिताजी के प्रवचन कम सुनने मिलेंगे.....पिताजी ने शुध्ध हिंदी में कटाक्ष किया....
" ये पलायनवादी दृष्टिकोण कोई विशेष मदद नहीं करता है जीवन में"..:D
उनके मुह से ऐसे वाक्य अक्सर सुनने मिल जाया करते थे...
" दीप्ति, तुम में व्यवहारिक ज्ञान और विवेक कि कमी है "......
" मेरी बातें तुम्हे अभी कटु लगेंगी, पर बेटा, सत्य यही है कि देर से उठने वाले जीवन में बहुत आगे नहीं जाया करते"
"समय समय पे आत्म विश्लेषण अति आवश्यक है"
ऊपर लिखीं बातों को हमने जीवन में कितना अपनाया, इस पे तो टिपण्णी नहीं करुँगी ....पर घर में शुध्ध हिंदी कोई बहुत दूर कि चीज़ नहीं थी....माताजी अक्सर हमारे गलत उच्चारण को सही कर देतीं थीं.....फूल (phool) ओर फूल (fool) में अंतर करना उन्होने ही सिखाया.....मौसियों और चाचियों ने जब अपने बच्चों के कठिन नामों (जैसे: कनिष्क) को गलत हिंदी में लिखा तो माताजी ने आगे बढ़के "श" और "ष" में अंतर बताया...कक्षा ६ से १० तक, नवीन भारती, पराग, स्वाति (हमारी हिंदी पुस्तकें) के सभी गद्य और कविताओं का भावार्थ, प्रसंग और भी न जाने क्या क्या, को अत्यंत भावपूर्ण तरीके से लिखवाने में माताजी ने कोई कसर न रख छोड़ी ; हमने भी हिंदी में उच्चतम अंक पाके, उनको गौरवान्वित किया....और १ हिंदी अध्यापिका कि सुपुत्री होने का कर्त्तव्य पूर्ण रूप से निभाया..:) खैर, कहने का तात्पर्य ये है कि आसपास अच्छी हिंदी का माहौल था.....कक्षा ११ तक हम हिंदी वाद विवाद प्रतियोगिताओं में न केवल भाग लिया करते थे..बल्कि प्रथम या द्वितीय स्थान प्राप्त करके विद्यालय के गौरव को बढाते थे... (इन प्रतियोगिताओं में शीर्षक कुछ ऐसे होते थे: भारतीय राजनीति में धर्मं का हस्तक्षेप-कितना उचित/ अनुचित) ऐसे विषयों का ६विन कक्षा में न तो सिर समझ आता था न पैर ..:) ८-१० पन्नों का १ झुंड हमें पकडा दिया जाता था......"बेटा, ये बोलना है...."...हम ख़ुशी ख़ुशी कर्तव्यपरायणता से उसे याद कर लेते थे....और किसी भी प्रतियोगिता में जाके.....मंडल/ जिले के हिंदी विद्वानों के सामने पूरे आत्मविश्वास एवं भावनाओं के साथ उगल दिया करते थे.....(Dias के पीछे hearbeats कितनी तीव्र गति से दौड़ रही होती थीं; इसका अनुमान शुक्र है किसी को कभी नहीं हुआ:) )

आज जब पीछे देखती हूँ तो याद पड़ता है...घर में १ रामायण हुआ करती थी....किसी हिंदी गाइड कि तरह दिखने वाली वो पुस्तक, २-३ भागों में थी.....हमने कक्षा २-३ में....पूरी रामायण (उत्तर रामायण सहित) ऐसे ही यहाँ वहां डोलते हुए पढ़ डाली थी (कहने कि आवश्यकता नहीं है..कि पुस्तक अत्यंत सरल हिंदी में थी)..... थोडा और बड़े हुए तो घर में रखे सभी शिवानी के उपन्यास (शिवानी हिंदी कि १ बहुचर्चित लेखिका हैं- उनकी सुपुत्री मृणाल पाण्डेय कुछ समय पहले तक हिंदी समाचार वाचिका थीं) पढ़ डाले; रुचि का १ कारण ये भी था कि सभी कहानियां/ उपन्यास गढ़वाल/ कुमाऊं का बड़ा ही रोचक वर्णन करते थे;

जब तक हम कक्षा १० में थे, घर में हिंदी अखबार नवभारत टाईम्स आया करता था; अखबार के मुख्य उपभोग्कता हमारे पिताजी थे, जो कि किसी भी दिन हिंदी भाषा से ज्यादा प्रेम/ तालुक रखते थे; स्कूल से आते ही, हम बिना change किये पहले पूरा अखबार पढ़ते....लोकल से ले कर विदेशी ख़बरों तक में सामान रुचि हुआ करती थी....फिर कक्षा ११विन में ये अहसास हुआ, कि reading an English newspaper would any day be more beneficial:))..तो घर में टाईम्स ऑफ़ इंडिया भी आने लगा.....उसमे भी हमारी रुचि बस सन्डे टाईम्स में ही रहती थी....बाकी का अखबार अक्सर खाना खाते हुए बिछाने के काम आता था या अपनी अलमारी में किताबों के नीचे बिछाने के..:) इसी बीच हमने कहीं Readers' Digest और CSR देख लीं..:)..तो घर में वो भी आने लगीं.....ये दोनों ही बड़े मन से पढ़े जाते थे.... (Readers' Digest deserves a complete post in itself-its one of the most captivating reads I have ever come across).
खैर, हिंदी भाषा से ताल्लुक शायद वहीँ तक था; इधर हम घर से बाहर निकले जीवन में कुछ कर दिखाने के लिए..:P...उधर मातृभाषा से तार टूटने से लगे....इंजीनियरिंग कॉलेज में आके पहले दो साल तो "कुछ भी नहीं पढ़ा"..:D..उसके बाद जब लगा कि अब आगे क्या.......तो MBA रुपी जीव सामने दिखाई पड़ा........बस....तब से जो अंग्रेजी भाषा से नाता जुडा है..आज आलम ये है कि......इस पोस्ट को लिखने में इस साईट से लेके श्री N का सहारा लेना पड़ा......फाइनल इयर में The Hindu , आसपास पायी जाने वालीं सभी अंग्रेजी magazines पढ़ी जाने लगीं.....हर वो लेख जो कि कठिन हो, जिसका सिर, पैर ना समझ आ रहा हो....उसपे शोध होने लगा... TOI का एडिटोरिअल जो मैं पूरे होशो हवास में मुश्किल ही पढ़ती हूँ कभी, पूरी शिद्दत एवं तल्लीन्त्ता से रुचि लेके पढ़ा जाने लगा...

जीवन तो इन सब में पता नहीं कितना सुधरा है....पर इतना ज़रूर है कि....हिंदी से कहीं नाता टूट गया लगता है इस बार घर गए, तो प्रेमचंद की गोदान रखी मिली १ शेल्फ में पूरे जोश से उसे तुंरत बैग में डाला. ..ये पढ़नी है....आज ६ महीने हो गए हैं किताब लाये हुए घर से......मुश्किल से ५० पन्ने पढ़ पाए हैं...:( रुचि पूरी है...पर पढने की गति इतनी चरमरा गयी है कि अब उठाने का मन ही नहीं करता....:( भाषा कोई भी हो..अपने आप में बहुत आदरणीय होती है .....किन्तु मातृभाषा में जब लिखने/ पढने में कठिनाई होने लगे तो कहीं ये बात दिल को अखरती ज़रूर है;
PS:
१. Thanks to N, for being the शब्द kosh for writing this post :)
२. गोदान शीघ्रातिशीघ्र ख़तम कर ली जायेगी.....कितना भी समय क्यूँ न लगे...:)
३. शीर्षक का लेख से कोई सम्बन्ध नहीं है....शीर्षक twitter से उठाये गए कुछ वार्तालापों का मिश्रण है:)
४. पूरे लेख में पूर्णविराम की जगह ";" लगाना पड़ा है...:( ब्लॉग पूर्णविराम दिखा नहीं रहा है पोस्ट :(
ये लेख लिखते हुए सुबह के ४:३० हो गए.....निम्न वर्णित गीत ने काफी साथ दिया tempo बनाये रखने में.....इसे अवश्य सुने.....:)
http://www.youtube.com/watch?v=XJJv83-5EyQ
cheers :)

12 people have something to say...:

Prats said...

I have read some of Shivani.... very beautifully written....Especially the way she portrays the woman.....

Nice post.... Bahut dino baad itna shudh vartalap sun ne ko mila hindi ka.... Aaj kal logon ki bhasha brashta ho gayi hai...Shudh hindi ek asvabhavik anand ki anubhuti karati hai... mazaa aa gaya padh kar....
Aur Saath main aapne yeh hum bolne ki aadat kab se pakad li?

Neer said...

Hindustani main tipnni nahin kur sakte ... bahut zyaada nainsaafi hain ....

Aapke is lekh ko padhke dil ko sakun mila .. vaise such bolun to hindustani likhne ki meri shamta to khatam ho chuki hai .. kyunki maatrayein kahan lagani hain aur kaun si lagaani hain us main mera thoda haat tung ho chuka hai

Aapke is lekh ko pudhke humara bhi man kur raha hai apni zindagi ke kuch vakyon ko shabdon main kaid kurne ka..

to ub jub hum aapke dwaara likhe hue in kisso ko padhne ka prun le chuke hain to humari aapse guzaarish hai ki aap bhi humare vaakyon ko padhen aur apni raaye zahir karen

aapke dwaara aumodit geet ko bhi humne suna aur hamain apne vidyalaye main bitaye kuch din yaad aa gaye

Hope the above hindi is correct tried after a long time :)

Neer said...
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Vandana Kushwaha said...

hey nice one.. :)

Ajay said...

Hey! You are so right about losing touch with Hindi. Took a huge effort to read and comprehend what you just said :) I don't think I have read so much Hindi in one day since after class 10 :)
Must say you still have pretty good control over the language though. I only had Hindi course B in class 10 :P

Unknown said...

bahan agar tu hum jaise hindi madhyam se pad huye honhaar vidhyarthiyon se bichhad jaayegi to aise hi blog lkhna padga..

parantu yah lekh atyant rochak hai ..accha pryas hai .. jaldi hi aapapne jeevan mai aap shivani ji ko prasthapit karti huyi nazar aayengi..

United Colors of Friendship said...
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United Colors of Friendship said...

uttam, ati uttam!!
humko ye jaankar ati harsh hua hai ki kuch birle log aaj bhi hindi ka prayog karte hain...
jahaan tak hamara sambandh hai...kabhi kabhi bhooole bisre agar hindi main kuch likhna pad jaaye to apna hi lekh samajh nahi aata hai!! kabhi kabhi poore poore maheene beet jaate hain kuch bhi hindi main likhe huey!
waise ek adbhut se garv aur samman ki anubhuti hoti hai....yeh dekh kar ki meri hi ek sakhi ne beeda uthaya hai hindi bhasha ke uddhar ka!!
veerangna tum badhi chalo, dheer tum badhe chalo!!
hum tumhare saath hain!!

anju rathaur said...

wah deepti majja aagaya padh kar......

Serenity said...

ummm scrupulous and a refined one!!

BrownPhantom said...

Kaafi Shudhdh thi Hindi..
Palayanwaadi Drishtikone : I am going to use that at the first apropriate chance :)
Kishan-Kanhiya ki to audio cassetee kharidi thi :) .aur VCR par laake dekhi thi .
You brght back many fond memories..Especially the hindi was too good :)

ePandit said...

दीप्ति जी नमस्कार, ऑनलाइन हिन्दी की दुनिया में आपका स्वागत है। आज नीरज जी के चिट्ठे से आपका पता मिला।

आपके स्वाभाविक भाषा में लिखे संस्मरण रोचक लगे। आशा है आगे भी इसी प्रकार हिन्दी में लिखती रहेंगी। अप्रवासी उत्तराञ्चलियों को अक्सर पहाड़ की बड़ली (खुद) लगती है, हमारे साथ भी अक्सर ये होता है। अब यादें ही तो बची हैं.

बाकी रही बात अंग्रेजी की तो हम सब शिक्षा और व्यावसायिक कार्यों के लिए अंग्रेजी ही प्रयोग करते हैं। लेकिन ब्लॉगिंग का जो मजा अपनी भाषा में है वो अंग्रेजी में नहीं। मैंने भी जब कई स्कूल के कई सालों बाद ब्लॉग पर हिन्दी लिखनी शुरु की थी तो शुरु में कई शब्द ठीक से पढ़ने लिखने ही न आते थे। लेकिन समय के साथ शुद्धता और टाइपिंग गति बढ़ती जाती है।

अतः लिखना जारी रखें।