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Saturday, August 22

राह पे रहते हैं...

एक अनमनी सी दोपहर...खिड़की के पास बैठे हुए, कोशिश की कि थोड़ा सा आसमान, थोड़े से हर घड़ी रंग बदलते बादल, थोड़े से पेड़,..कहीं कुछ दिखाई दें....बहुत कोशिशों के बाद भी सामने बस एक बड़ी सी पीले रंग की दीवार, कुछ खड़ी गाड़ियों के अलावा कुछ न दिखा....तो बाहर से आती ठंडी हवा को ही अपने हिस्से की प्रकृति मान लिया....और फिर वापस उसी खिड़की की ओर रुख़ किया जो शायद अब हमारा इकलौता झंरोखा है इस दुनिया को देखने का....
गुलज़ार साहब के शब्दों को बड़ी खूबसूरती से पंचम दा ने गीत में पिरोया है....और आप हम जैसे किसी प्रशंसक ने कुछ उम्दा तस्वीरें डाल के ये सुंदर विडियो बना दिया है ...
A beautiful song with some amazing locales reminding of the nature's bliss, we are far away from......