तेरे आने की जब खबर महके....तेरी खुशबू से सारा घर महके......
ये गाना चल रहा है background में.....
पिछली पोस्ट का डेट देखा तो एहसास हुआ की अगस्त के महीने में अब तक १ पोस्ट भी नहीं लिखी गयी है......इस वीकेंड मैं शादी के बाद पहली बार अपने घर गयी..."अपने"= मेरे mum पापा वाले घर...:)....Bangalore से गुडगाँव शिफ्ट हुए almost ४ महीने हो चुके हैं.....देश के इस हिस्से में बहुत खूबियाँ/ बुराइयां हैं...मैं गिनाने बैठूंगी तो बस बुराइयाँ निकलेंगी और ये पोस्ट कभी भी ख़तम नहीं होगी.....पर॥जैसे की मेरी अक्सर कोशिश रहती है......कम से कम इस जगह पर मैं crib करना avoid करती हूँ.....हाँ, तो अपने और सब traits के अलावा, इस जगह की खास बात ये है...की यहाँ हर समय १ अजीब सी भगदड़ रहती है....ऐसा नहीं है की मेरा ऑफिस घर से कोई दूर है और मुझे बहुत travel करना पड़ता है, या मेरे वोर्किंग hours इतने तकलीफदेह हैं की जीने मरने की नौबत आई रहती है......पर यहाँ कुछ ऐसा है की मानसिक सुकून नाम की चीज़ नदारद है.....इससे पहले भी मैं सो called "metros " में रही हूँ....पर जितनी आफत यहाँ लगती है॥उतनी कभी भी कहीं नहीं लगी......हर समय ऐसे लगता है जैसे कुछ करना बाकी रह गया आज के दिन भी....आने वाले दिन का कोई उत्साह ही नहीं लगता.....
खैर....इस सब के बाद, स्वतंत्र दिवस वाले वीकेंड पे हम निकल गए अपने घर की और....पहली बार ऐसा लगा..की यार बड़े होके कोई विशेष फायदा नहीं हो रहा है....:(
मैं पिछले दस सालों से घर से बाहर रह रही हूँ.....इन दस वर्षों में कॉलेज के दिनों के अलावा घर जाने का मौका बस ऐसे ही साल में १-२ बार मिलता था....हद से हद १० दिन के लिए १ बार में......जब तक वहां मन लगना शुरू होता था, वापस आने का समय पास आ जाता था....अक्सर सुबह ४ बजे की ट्रेन पकड़ के दिल्ली और वहां से अपने ठिकाने..चेन्नई या बंगलोरे......झाँसी जाने के लिए रात १२ बजे की ट्रेन पकड़ते थे.....जो अगले दिन १२ बजे झाँसी पहुंचाती थी...और मेरे अन्दर का आलसी जानवर.....दतिया तक सोता रहता था.....(दतिया झाँसी से ठीक पहला स्टेशन है जिसपे अगर आप नहीं उठे..तो स्टेशन छूटा समझो)...पर वापस हॉस्टल पहुँच कर १ नयी ही दुनिया शुरू हो जाती थी....और वहां ऐसे मन राम जाता था..की फिर जब तक अगली बार हॉस्टल खाली होता न दिखे मैं अपना सामन बांधती ही नहीं थी.....
चेन्नई और बंगलोरे में भी कुछ ऐसा ही हाल था....जब तक स्टुडेंट रहे.....हॉस्टल का कमरा ही घर लगता था, छुट्टियों से वापस आकर कमरा खोलते हुए लगता था...की बस, पहुँच गए अपनी जगह....चैन..राहत.....
पर पता नहीं दिल्ली (NCR) आके ऐसा कभी क्यूँ नहीं लगता......यही १ ऐसी जगह है...जहाँ वापस आके भी लगता है, की नहीं घर ही जाना है.....और ऐसा नहीं है की ये पहली बार है, अपने २००४ के १ साल के प्रवास के दौरान भी मैंने यही पाया, कि यहाँ से घर जाके..वापस आने का सचमुच मन नहीं करता.....और इस बार तो मन में ये तीव्र विचार उठा, कि ज़िन्दगी अगर कहीं है...तो हमारे छोटे शहरों में ही है.....दिन में सो जाओ..तो बस १ आवाज़ होती है background में...पंखे कि....:)....१ दम शान्ति, बचपन के दिन याद आ गए..जब स्कूल से आके मम्मी डांट के सुलाया करतीं थी...और हम तीनो भाई बहेन थोडा लड़ झगड़ के सो जाते थे...बीच में अगर उठे तो पैर भी धीरे धीरे रखने पड़ते थे कि कहीं मम्मी कि आँख न खुल जाए......और गढ़वाली में १- २ तीखे प्रहार न हो जाएँ...:D
घर से १ km के radius पर ज़रुरत की सब चीज़ें....बिना traffic में फंसने कि टेंशन के...तो अगर पापा कह के गए हैं कि "ज़रा यहीं" तक जा रहा हूँ..तो आप निश्चिन्त रहे...कि जगह सचमुच पास होगी....
पडोसी सिर्फ बाजू वाले घर में रहने वाले लोग नहीं, बल्कि ऐसे मित्र हैं जिनके चेहरे पे आपको देख के ऐसे ख़ुशी आ जायेगी..मानो उनके बच्चे ही घर आ गए हों..और आपके आने की खबर सुनकर, वो अपने आप ही मिलने चले आयेंगे......और आपके पति को अपने दामाद जितना ही मान देंगे..:)
डॉ को दिखने जायेंगे, तो उनको बस इतना कहना होगा की आप..ध्यानी जी की बिटिया हैं, बाकी वो अपने आप ही पूछ लेंगे....बेटे आपका भाई कैसा है, आप कहाँ रह रही हो..और दवाई के साथ यहन वहां २-४ बातें भी कर लेंगे.....अपने "कीमती" समय की फिक्र न करते हुए...खैर, बात का सार ये है कि सुकून से बढ़कर इस दुनिया में मुझे कुछ नहीं लगता, और इस जगह मुझे बस सुकून ही नहीं लगता.....
वापस आने का reservation छत्तीसगढ़ में था.....रात १२ बजे चलने वाली गाडी, जिसमे अपने इंजीनियरिंग के ४ साल मैंने बहुत सफ़र किया है....सुबह ४ बजे दिल्ली पहुंचा देती है....चढ़ने से पहले ही पता था..कि नींद तो पूरी होगी नहीं..१ अजीब सी बैचैनी थी मन में..."झुर्याट" कहते हैं जिसे गढ़वाली में...kisi चीज़ का मन न हो..और डर के बुझे मन से वो करना पड़े...वापस दिल्ली आने का १ अंश भी मन नहीं था.......ये झाँसी का सफ़र तो है नहीं..कि आज रात चढ़े..तो कल दिन में ही उठेंगे अब सीधे....आराम से..चैन से....शायद ट्रेन का ये छोटा हो गया सफ़र भी यही इशारा दे रहा था..कि इस सफ़र कि तरह..ज़िन्दगी से सुकून भी कम हो गया है.....manzil आ गयी है..जुट जाओ फिर काम पे.....और भागने लगो इस रेले के साथ.....
ये गाना चल रहा है background में.....
पिछली पोस्ट का डेट देखा तो एहसास हुआ की अगस्त के महीने में अब तक १ पोस्ट भी नहीं लिखी गयी है......इस वीकेंड मैं शादी के बाद पहली बार अपने घर गयी..."अपने"= मेरे mum पापा वाले घर...:)....Bangalore से गुडगाँव शिफ्ट हुए almost ४ महीने हो चुके हैं.....देश के इस हिस्से में बहुत खूबियाँ/ बुराइयां हैं...मैं गिनाने बैठूंगी तो बस बुराइयाँ निकलेंगी और ये पोस्ट कभी भी ख़तम नहीं होगी.....पर॥जैसे की मेरी अक्सर कोशिश रहती है......कम से कम इस जगह पर मैं crib करना avoid करती हूँ.....हाँ, तो अपने और सब traits के अलावा, इस जगह की खास बात ये है...की यहाँ हर समय १ अजीब सी भगदड़ रहती है....ऐसा नहीं है की मेरा ऑफिस घर से कोई दूर है और मुझे बहुत travel करना पड़ता है, या मेरे वोर्किंग hours इतने तकलीफदेह हैं की जीने मरने की नौबत आई रहती है......पर यहाँ कुछ ऐसा है की मानसिक सुकून नाम की चीज़ नदारद है.....इससे पहले भी मैं सो called "metros " में रही हूँ....पर जितनी आफत यहाँ लगती है॥उतनी कभी भी कहीं नहीं लगी......हर समय ऐसे लगता है जैसे कुछ करना बाकी रह गया आज के दिन भी....आने वाले दिन का कोई उत्साह ही नहीं लगता.....
खैर....इस सब के बाद, स्वतंत्र दिवस वाले वीकेंड पे हम निकल गए अपने घर की और....पहली बार ऐसा लगा..की यार बड़े होके कोई विशेष फायदा नहीं हो रहा है....:(
मैं पिछले दस सालों से घर से बाहर रह रही हूँ.....इन दस वर्षों में कॉलेज के दिनों के अलावा घर जाने का मौका बस ऐसे ही साल में १-२ बार मिलता था....हद से हद १० दिन के लिए १ बार में......जब तक वहां मन लगना शुरू होता था, वापस आने का समय पास आ जाता था....अक्सर सुबह ४ बजे की ट्रेन पकड़ के दिल्ली और वहां से अपने ठिकाने..चेन्नई या बंगलोरे......झाँसी जाने के लिए रात १२ बजे की ट्रेन पकड़ते थे.....जो अगले दिन १२ बजे झाँसी पहुंचाती थी...और मेरे अन्दर का आलसी जानवर.....दतिया तक सोता रहता था.....(दतिया झाँसी से ठीक पहला स्टेशन है जिसपे अगर आप नहीं उठे..तो स्टेशन छूटा समझो)...पर वापस हॉस्टल पहुँच कर १ नयी ही दुनिया शुरू हो जाती थी....और वहां ऐसे मन राम जाता था..की फिर जब तक अगली बार हॉस्टल खाली होता न दिखे मैं अपना सामन बांधती ही नहीं थी.....
चेन्नई और बंगलोरे में भी कुछ ऐसा ही हाल था....जब तक स्टुडेंट रहे.....हॉस्टल का कमरा ही घर लगता था, छुट्टियों से वापस आकर कमरा खोलते हुए लगता था...की बस, पहुँच गए अपनी जगह....चैन..राहत.....
पर पता नहीं दिल्ली (NCR) आके ऐसा कभी क्यूँ नहीं लगता......यही १ ऐसी जगह है...जहाँ वापस आके भी लगता है, की नहीं घर ही जाना है.....और ऐसा नहीं है की ये पहली बार है, अपने २००४ के १ साल के प्रवास के दौरान भी मैंने यही पाया, कि यहाँ से घर जाके..वापस आने का सचमुच मन नहीं करता.....और इस बार तो मन में ये तीव्र विचार उठा, कि ज़िन्दगी अगर कहीं है...तो हमारे छोटे शहरों में ही है.....दिन में सो जाओ..तो बस १ आवाज़ होती है background में...पंखे कि....:)....१ दम शान्ति, बचपन के दिन याद आ गए..जब स्कूल से आके मम्मी डांट के सुलाया करतीं थी...और हम तीनो भाई बहेन थोडा लड़ झगड़ के सो जाते थे...बीच में अगर उठे तो पैर भी धीरे धीरे रखने पड़ते थे कि कहीं मम्मी कि आँख न खुल जाए......और गढ़वाली में १- २ तीखे प्रहार न हो जाएँ...:D
घर से १ km के radius पर ज़रुरत की सब चीज़ें....बिना traffic में फंसने कि टेंशन के...तो अगर पापा कह के गए हैं कि "ज़रा यहीं" तक जा रहा हूँ..तो आप निश्चिन्त रहे...कि जगह सचमुच पास होगी....
पडोसी सिर्फ बाजू वाले घर में रहने वाले लोग नहीं, बल्कि ऐसे मित्र हैं जिनके चेहरे पे आपको देख के ऐसे ख़ुशी आ जायेगी..मानो उनके बच्चे ही घर आ गए हों..और आपके आने की खबर सुनकर, वो अपने आप ही मिलने चले आयेंगे......और आपके पति को अपने दामाद जितना ही मान देंगे..:)
डॉ को दिखने जायेंगे, तो उनको बस इतना कहना होगा की आप..ध्यानी जी की बिटिया हैं, बाकी वो अपने आप ही पूछ लेंगे....बेटे आपका भाई कैसा है, आप कहाँ रह रही हो..और दवाई के साथ यहन वहां २-४ बातें भी कर लेंगे.....अपने "कीमती" समय की फिक्र न करते हुए...खैर, बात का सार ये है कि सुकून से बढ़कर इस दुनिया में मुझे कुछ नहीं लगता, और इस जगह मुझे बस सुकून ही नहीं लगता.....
वापस आने का reservation छत्तीसगढ़ में था.....रात १२ बजे चलने वाली गाडी, जिसमे अपने इंजीनियरिंग के ४ साल मैंने बहुत सफ़र किया है....सुबह ४ बजे दिल्ली पहुंचा देती है....चढ़ने से पहले ही पता था..कि नींद तो पूरी होगी नहीं..१ अजीब सी बैचैनी थी मन में..."झुर्याट" कहते हैं जिसे गढ़वाली में...kisi चीज़ का मन न हो..और डर के बुझे मन से वो करना पड़े...वापस दिल्ली आने का १ अंश भी मन नहीं था.......ये झाँसी का सफ़र तो है नहीं..कि आज रात चढ़े..तो कल दिन में ही उठेंगे अब सीधे....आराम से..चैन से....शायद ट्रेन का ये छोटा हो गया सफ़र भी यही इशारा दे रहा था..कि इस सफ़र कि तरह..ज़िन्दगी से सुकून भी कम हो गया है.....manzil आ गयी है..जुट जाओ फिर काम पे.....और भागने लगो इस रेले के साथ.....
8 people have something to say...:
Sahi keh rahi ho yaar .. pata hi nahi lagta ki jindagi kahan ja rahi hain .. kya sochtein hain aur kya ho jaaye .. ye NCR ki khoobi hain ... mein to yahan se bhaag rahin hun ;)
hey Deepti ...very well written...
lag raha jaise tumne mere dil ki sari bat keh di :)..jane kyun but hamesha bhagambhag lagi rehti hai...kuch to badal gaya hai...shayad ye ki sachmuch ab bade ho gae hain...hope wo chain ki zindagi shayad budhape main phir laut aegi :D
काश, उसी छोटे से कसबे जैसे शहर में वापस जा सकता जहाँ बचपन का एक बड़ा हिस्सा बीता है.. मगर मुझे तो यह भी नहीं पता कि जिंदगी में भी कभी उसे देखने जा सकूंगा या नहीं?
हर शख्स के भीतर एक शहर बस्ता है ..जब पहली बार अपना शहर छोड़ा था तब लगा था के ये सड़के .....पोस्ट ऑफिस ...किनारे वाला बरगद का पेड़......खम्बे....सब के सब कितने जिंदा है ...... जब हॉस्टल छोड़ा तो फिर ऐसी ही फीलिंग ......ओर अब रोज चीजों को रिवाइंड करके ... .जिंदगी के रिचार्ज कूपन को भर रहे है .....
बहुत ही सही लिखा है आपने ज़िन्दगी का जो मज़ा अपने छोटे शहरों में है वोह शायद कहीं और नहीं. काफी अच्छा लगा आपको वापस ब्लॉग्गिंग की दुनिया में देख के. उम्मीद है अब यह सफ़र बिना रुके जारी रहेगा :-)
hey deepti, loved ur post..!!! every word of it felt like its my own story...really miss thise days of SRE...aaj bhi bahut baar man karta hai ki kisi chote shehar may jaakar rehne lagu...i have seen /stayed in all the metros but i guess delhi is the worst place to be in...in all respects..!!!
Delhi shayad kewal Delhi mein paida, pale bade hue logon ko hi acha lagta hai!!
Bahut jyada aggressive sheher hai!! Apni identity bhi kho jaati hai.
Mera to target hai agle 5 saal mein ma papa ke sath Kotdwar mein settle hona.Dekho hota hai ya nahi!!
kai baar sochta hoon, ki jab 17-18 ke the to ma papa se door chale gaye, isse do chaar saal pehle hi to hosh aya tha.Ab bhi sath rehna mushkil lagta hai! Kya apna sath itna chota tha??
@shilpi..tum khushkismat ho meri dost...
@neeraj sir...ji yahan pakta hai mujhe...apne chote sheher hi theek the..
@PD oh...kahan hai aapka ghar vaise??
@ Dr Anurag :)..aapke comments bhi post ki tarah baar baar padhne laayak hote hain...
@Prats han yaar..and this place irritates me like anything...
@priyanka...thanku so much..:)
@Atreya sahi mein yaar..this place intimidates me...like no other place...
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